माताओं ने मामा को दिया विजयी आशीर्वाद, लाड़ली बहना योजना साबित हुई गेमचैंजर।

मध्यप्रदेश में 165 सीटों के साथ फिर बनेगी भाजपा सरकार

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लाड़ली बहना योजना के प्रभाव और भाजपा के थिंकटैंक द्वारा बनाए गए चुनावी चक्रव्यूह में कांग्रेस फंस गई और महज 64 सीटों में सिमट गई। जबकि भाजपा ने अपने मजबूत संगठन और शिवराज सिंह चौहान के करिश्माई नेतृत्व के दम पर 165 सीटों में चुनाव जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया।

हालांकि चुनाव के कुछ महीनों पहले स्तिथि जो आज दिख रहीं है
उससे कुछ अलग थी।भाजपा 2020 में किए गए सरकार पलट के द्वारा सत्ता में आई थी जिसके कारण मध्यप्रदेश में कांग्रेस को सांत्वना मिल रही थी। साथ ही पटवारी घोटाले , स्टेट सर्विस परीक्षाएं में हो रही देरी, बेरोजगारी , ओबीसी आरक्षण, रेत माफिया के प्रति नरम रुख और एंटी इनकंबेंसी जैसे मुद्दे भी भाजपा के सरकार में वापसी के लिए खतरा साबित होते दिख रहे थे।

लाड़ली बहना योजना क्या है?

भाजपा की विजय में शिवराज सरकार द्वारा लाई गई लाड़ली बहना योजना का बड़ा योगदान रहा।इस योजना के तहत 21 साल से 60 साल की महिलाओं 1000 रुपए प्रति माह डीबीटी के द्वारा हस्तांंतरित करने का निर्णय लिया गया जिससे 1 करोड़ से भी ज्यादा महिलाएं लाभान्वित हुई। इसका प्रभाव चुनाव में कुछ ऐसा पड़ा कि 2018 में 74.03% महिला वोटिंग 2023 में बढ़कर 76.04% हो गई जिसकी भाजपा सरकार बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका रही।

इससे इतर देखा जाए तो मध्यप्रदेश में भाजपा ने रणनीतिक तौर पर भी पूरे मध्यप्रदेश को घेरा शिवराज के मुखमंत्री कार्यकाल के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि चुनाव से पहले उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नही किया । रणनीतिक रूप से 3 केंद्रीय मंत्री,सांसदों और बड़े नेताओं को टिकट दिए गए जिसके द्वारा जन मानस में यह राय बना दी गई की ये जीते तो सूबे का मुखमंत्री हमारे क्षेत्र से होगा।

इस रणनीति में नरेंद्र पटेल के नाम पर महाकौशल और बुंदेलखंड को , फग्गन सिंह कुलस्ते के नाम पर आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र को, कैलाश विजयवर्गीय के नाम पर मालवा को और नरेंद्र सिंह तोमर के नाम पर चंबल को साधने की कोशिश रही। इन क्षेत्रों में यह चर्चा चलने लगी कि भाजपा जीती तो हमारा व्यक्ति मुखमंत्री बनेगा ।यह रणनीति मालवा, चंबल ,महाकौशल में भाजपा की मजबूत स्तिथि से स्पष्ट भी होती है इस रणनीति का फायदा भाजपा को हुआ। हालंकि इनमे से केवल फग्गन सिंह कुलस्ते जीत हासिल नहीं कर पाए।

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वहीं कांग्रेस जो 8 माह पहले मजबूत दिख रही थी 64 सीटों में सिमट कर रह गई की स्तिथि देख कर लगता है कि कांग्रेस ने खुद के पैर में कुल्हाड़ी मार ली । कांग्रेस ने पूरा चुनाव कमलनाथ के नाम पर लड़ा और वे अकेले ही समूचे मध्यप्रदेश को साधते नजर आए ।जिसका प्रभाव यह पड़ा की कांग्रेस के लोकलुभावी नेता राहुल गांधी मध्यप्रदेश के चुनावी प्रचार मुंह दिखाई जैसी रस्म निभाते दिखे जिससे कांग्रेस यह दिखाने में असफल रही की वह जनता को क्या देना चाहती है।

कांग्रेस विपक्ष में रहकर भी भाजपा के लूपहोल का फायदा नहीं उठा पाई वह न तो पटवारी घोटाले को भुना पाई,ना ही जनता से मिल रही सांत्वना को कैश करने कर पाई ,ना ही एंटी इनकंबेंसी का फायदा उठा पाई में ,ना ही युवा के लिए लाए एक अच्छे मेनिफेस्टो को उन तक पहुंचा पाई ।इसके साथ साथ ग्राउंड से उसके नेता नदारद रहे।

नतीजों ने स्पष्ट कर दिया की चुनाव जीतने के जनता के बीच आपको हर माध्यम से पहुंचने की कोशिश करनी ही पड़ती है,जो कांग्रेस डेस्क वर्क के दम पर जितना चाह रही थी वो भी एक मजबूत जमीनी संगठन के सामने।

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